kanchan singla

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मेरा शहर

मेरा शहर कहां है

मैं खुद ही तो हूं 

खुद में ही एक पूरा शहर ।।


ये सड़कें, ये गालियां

ये चौबारे, ये नदियां

मुझ से होकर गुजरते हैं

कभी मैं इनसे होकर गुजरती हूं

ये मुझमें एक शहर की तरह बसतें हैं ।।


कुछ किस्से, कुछ कहानियां

लोगों की जुबानियां या 

पन्नों पर छपी नादानियां

रोज सुनने को मिलते हैं

एक शाम की तरह ठहरते हैं और

एक रात की तरह गुजरते हैं

जैसे कोई शहर कहीं बसता है ।।


कहीं हंसना हो, कहीं रोना हो

कहीं गम छलकते हैं जामों से

कहीं खुशियां निकलती बहानों से

जैसे लोग बसते हैं

कहीं कच्ची मिट्टी के मकानों में 

कहीं पक्के खड़ी इमारतों में

कुछ दर्द ऐसे ही बसते हैं 

कुछ खुशियां ऐसे ही झलकती हैं

जैसे किसी शहर में बसते हो अनगिनत लोग कहीं 

कुछ इसी तरह मैं खुद में ही हूं एक पूरा शहर 

जो समेटे हुए है जाने कितने ही रंग 

समंदर की आती-जाती लहरों के तरह

लोगों की चलती सांसों की तरह

मन में उमड़ते घुमड़ते कुछ भाव 

जैसे कहीं गरज कर बरसा हो मेघराज ।।


मेरा शहर कहीं नहीं है क्योंकि

एक शहर बसता है मुझमें ही

मैं खुद में ही, खुद से ही 

असंख्य भावों को समेटे 

मैं हूं एक पूरा सा शहर ।।



- कंचन सिंगला ©®

लेखनी प्रतियोगिता -24-Nov-2022


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4 Comments

Abhinav ji

25-Nov-2022 09:27 AM

Very nice👍

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Gunjan Kamal

24-Nov-2022 08:56 PM

शानदार

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Sachin dev

24-Nov-2022 07:50 PM

Well done ✅

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